7 October, 2024
हरेला लोक पर्व का योगदान

पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन में हरेला लोक पर्व का क्या योगदान है

डॉ ० भरत गिरी गोसाई, सहायक प्राध्यापक वनस्पति विज्ञान, शहीद श्रीमती हंसा धनाई राजकीय महाविद्यालय अगरोड़ा, धारमंडल टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) ने उत्तराखंड का प्रमुख लोक पर्व हरेला का प्रकृति के साथ संबंध विषय पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने बताया कि देवभूम उत्तराखंड प्राचीन काल से ही अपने परंपराओं, रीति-रिवाजों, लोक पर्वो एवं त्योहारों के द्वारा प्रकृति की संरक्षण के लिए जाना जाता है।

देवभूमि उत्तराखंड मे प्रतिमाह कोई ना कोई लोक पर्व अथवा त्यौहार मनाया जाता है जिनका सीधा संबंध प्रकृति एवं मानव के घनिष्ठ सबंधों को दर्शाता है। सुख, समृद्धि, पर्यावरण संरक्षण एवं प्रकृति प्रेम का प्रतीक हरेला लोक पर्व उत्तराखंड राज्य के मुख्यतः कुमाऊं क्षेत्र मे हिंदुओं द्वारा मनाए जाने वाला प्रमुख लोक पर्व है जो श्रावण के महीने मे मनाया जाता है।

मान्यता यह है कि भगवान शिव और देवी पार्वती की विवाह दिवस को ही उत्तराखंड के लोग हरेला पर्व के रूप मे मनाते है। खुशहाली और समृद्धि के इस प्रतीक पर्व पर घर के बुजुर्ग लोगो की ओर से मिलने वाले आशीर्वचनो का सौभाग्य प्राप्त करने तथा अपने गांव की जड़ो से हमेशा जुड़े रहने के लिए कई प्रवासी लोग इस लोक पर्व पर अपने घर आते है। किन्ही कारणो से परिवार जनो के घर न आने पर डाक अथवा किसी परिचित व्यक्ति के माध्यम से हरेला भेजा जाने की परंपरा है। लेकिन आधुनिक समय मे इस त्यौहार मे काफी बदलाव भी आये है। लोक पर्व हरेला के दिन अनेक प्रकार के पकवान जैसे खीर, पूरी, पूवा, रायता, उड़द के बडे आदि बनाये जाते है तथा आस-पड़ोस मे भी बांटा जाता है जिससे पारिवारिक सबंध भी मधुर होते है।

हरेला पर्व मनाने की विधि:

श्रावण माह से 10 दिन पहले एक बर्तन मे 7 तरह के अलग-अलग बीज जैसे धान, गेहूं, जो, उड़द, गहत, सरसो तथा भट बोया जाता है। बर्तन को अंधेरे कमरे मे रखकर पौध उगने का इंतजार किया जाता है। इन पौधो को ही हरेला कहा जाता है। मान्यता है कि हरेला का पौधा जितना बडा होगा उस वर्ष फसल भी उतनी अच्छी होगी। हरेला पर्व के दिन इन पौधों को काटकर भगवान शिव के चरणों मे चढ़ाया जाता है तथा भगवान से अच्छी फसल उत्पादन की प्रार्थना व पूजा पाठ किया जाता है।

हरेला लोकपर्व का पर्यावरण से संबंध:

आज पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण सबंधित समस्याओ से जूझ रहा है। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखना मानव के जीवन को सुखी, समृद्ध व संतुलित बनाए रखने के लिए वृक्षारोपण का विशेष महत्व है। धर्म शास्त्रों के अनुसार वृक्षारोपण से पुण्य प्राप्त होता है। वैज्ञानिको ने घटते वृक्षों का प्रकृति व समाज पर प्रभाव विषय पर गहन अध्ययन करके उसके दुष्प्रभावों के प्रति लोगो को सचेत किया है। वृक्षों से हमे प्राणवायु ऑक्सीजन प्राप्त होता है। वैज्ञानिको के अनुसार संतुलित पर्यावरण के लिए एक तिहाई हिस्से पर वनों का होना अति आवश्यक है किंतु वर्तमान मे वनों के अत्यधिक कटान के कारण यह अनुपात नही रहा है। इसलिए वृक्षारोपण ही इसका एकमात्र उपाय है। वनों से हमे अनेक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ मिलते है। वनों से हमे अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियां मिलते है जिनका प्रयोग औषधियां बनाने मेउ किया जाता है।

वर्तमान समय मे अनेक आदिम जातियां भोजन (कंद-मूल फल आदि) के लिए वनों पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर रहते है। वनों का प्रयोग कागज, दियासलाई, लाख, प्लाईवुड, खेल का सामान, फर्नीचर आदि बनाने मे किया जाता है। भारत मे लगभग 35 लाख लोग वनों पर आधारित उद्योगो मे कार्य करके अपनी आजीविका चलाते है। वन सरकारी आय मे वृद्धि करने का प्रमुख स्रोत है।

भारत मे प्रतिवर्ष लगभग 100 करोड का प्रत्यक्ष लाभ वनो के उत्पादों का निर्यात करके होता है। इसके अतिरिक्त वनों से हमे अनेक अप्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त होते है। वन मृदा अपरदन को रोकने मे सहायक है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावो को कम करते है, वन पर्यावरण को स्थिरता प्रदान करने मे सहायक होते है।

प्रत्येक परिवार द्वारा हरेला के दिन अनिवार्य रूप से वृक्षारोपण (फलदार व कृषि उपयोगी पौध) की परंपरा है। मान्यता है कि हरेला के दिन टहनी मात्र रोपण से उससे पौध पनप जाता है। इस प्रकार हरेला पर्व का सीधा संबंध प्रकृति संरक्षण व संवर्धन से है।हरेला का महत्व को समझते हुए उत्तराखंड सरकार ने प्रतिवर्ष 5 जुलाई को हरियाली दिवस मनाने का संकल्प लिया है जिसका मुख्य उद्देश्य प्रकृति संरक्षण हेतु आम जनता के मध्य जन चेतना व जन जागरूकता फैलाना है।

हरेला का त्यौहार न केवल अच्छी फसल उत्पादन के लिए मनाया जाता है बल्कि आने वाली ऋतुओ के प्रतीक के रूप मे भी हरेला वर्ष मे तीन बार मनाया जाता है। चैत मास के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है तथा नौवें दिन (नवमी) मे काटा जाता है। यह मुख्यत ग्रीष्म ऋतु आने का संकेत देता है। इसी तरह आश्विन माह मे नवरात्रि के दिन हरेला बोया जाता है तथा दशहरे के दिन काटा जाता है। यह शीत ऋतु आने का प्रतीक है। वर्ष मे तीसरी हरेला जो कि तीनो हरेला मे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, श्रावण माह से 9 दिन पहले बोया जाता है तथा 10 दिन बाद काटा जाता है। यह वर्षा ऋतु आने का संकेत देता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार हरेला के पौधो से बीजों के उत्पादन क्षमता का भी पता लगाया जा सकता है। इस प्रकार उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ लड़ने का संदेश देता है। हरेला हमे अवसर देता है कि हम अपने प्रकृति को करीब से जाने। जिस प्रकृति ने हमे इतना सब कुछ दिया है वृक्षारोपण द्वारा उस प्रकृति का कर्ज उतारने की एक छोटी सी कोशिश किया जाए तथा संकल्प ले कि प्रतिवर्ष कम से कम एक पौध लगाकर पर्यावरण संरक्षण मे अपना योगदान अवश्य देंगे। हमारी आज के प्रयास हमारी आने वाली कल की पीढ़ियों के लिए वरदान साबित होगा।

लेखक – भरत गिरी गोसाई

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